Monday, July 23, 2018

अक्कल दाड़'


दस किश्तें यहाँ डालूँगा उम्मीद है पसंद आएगा पहाड़ों में राष्ट्रीय आन्दोलन और उसके बाद की हलचल व राजनैतिक पृष्ठभूमि पर लिखने का प्रयास है यह पहला ड्राफ्ट है हर शनिवार नई किश्त ।
एक -1
वो बिष्टों की लड़की थी। जात-खान देख कर नेपाल से बियाह कर लाए उसे थोकदार मंगल सिंह। दहेज में चार भैंस पचास बकरियां, दो सेवादार मिले। जिसमें से एक का नाम भागुली और दूसरे का नाम था मधवा। उस समय इन सेवादारों के नाम के पीछे जात में कम्रा (कामदार) लिखा जाता था। कालान्तर में मधवा अपने नाम के पीछे बोरा और फिर आंखिरकार बिष्ट ही लिखने लगा। सवाल केवल जात बदलने का नहीं था और न ही नाम बदलने का, सवाल था इंसान के बदल जाने का। 
वर्षों पहले थोकदार और उसकी पत्नी जब अपनी बेटी का ब्याह करके गाँव में आनंद से रह रहे थे उन्हीं दिनों थोकदार मंगल सिंह पहाड़ से गिरकर मर गया। इसी तरह एक दिन सुबह बिना-बीमार के खड़ाखड़ी थोकदारनी भी गुज़र गई। थोकदार की लड़की वसुन्धरा का पति सेना में शहीद हो गया। वसुन्धरा भी अपना पैंल (ससुराल) छोड़कर मैत (माईके) आकर बैठ गई। कहते हैं मधवा ने उसे दूसरे घर नहीं जाने दिया। सेना से मिले रुपयों-पैसे थोकदार की संपत्ति सब मधवा ने हड़प ली।
इसी तरह से वसुन्धरा के मरने के बाद माधव सिंह उर्फ मधवा कम्रा अपने नाम के आगे बिष्ट लगाने लगा। उसने खूब संपत्ति से शहर में एक होटल बनाया जिसका नाम रखा ‘होटल भूपति’। वह धीरे-धीरे सत्ता और पूँजी के फेर में रमता गया और इस तरह वह एक दबंग और खतरनाक माफिया बन गया। लोगों को दुःख बीमार के समय उन्हे धन उधार देता और बदले में गहने गिरवी रख लेता, जमीनें गिरवी कर लेता। धीरे-धीरे शराब में ठेकेदारी करते हुए उसने अपना एकछत्र राज खड़ा कर दिया।
लेकिन तब बगड़खोला की जमीन में आद् (नमी) थी। मंडुवे की बालें सूर्जमुखी के फूल सी भरी रहती थी, अलसी-पीतल के परादों में पिसलती थी। धानों की प्रजातियाँ केदार गाँव के सेरे को नई -नवेली नखरियाली बहु सा सजाती थी। उन दिनों पूर्वी रामगंगा का भी पानी छिछला न था, पानी की लहरें दोनों किनारों को छूती थी। एक ही खेत को दोहल बल्द जोतते थे। ढेड़ बेत का चौड़ा नस्यूड़ धरती को सहलाता हुआ गांभिन करता था। मूगफली, कोणी, मादिरा, आम, अमरूद, कटहल, अननानास खूब जमकर होते थे वहाँ। तब ‘भूपति’ होटल का मालिक शहर में ही था। 
उन दिनों गाँव में केदार देवता पूजा जाता था, वही केदार देवता जो मूलतः बिष्टों का ईष्ट देव भी था। फागलों और भीड़ो में बाभ्यो घास खूब गाझिन उगती थी। गाँव के लोग अपने लोकदेवता का दायभाग नैनाकी के रूप में संज्यात (सामुहिक रूप) चढ़ाते थे तब जाकर पकता था घरों पर नया नाज।
जिन दिनों उत्तरप्रदेश से अलग राज्य उत्तराखंड बनने की सुगबुगाहट शुरू हुई तभी से मधवा का गाँव में दखल बढ़ता गया। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यह दख़ल दोगुना हो गया और इस दखल का पहला विरोध किया ताम्खोरी गोपाल उर्फ हॉफमैण्ड ने।
ताम्खोरी गोपाल का असली नाम दान सिंह था। रामगंगा के किनारे स्तेपी के मैदान से नाज के सेरे फैले थे। रूस की दोन नदी के किनारे रहने वाले कज्ज़ाक लड़ाकों और राम नदी के आर-पार बिखरे भण्डारी, टम्टा, ल्वार, सार्की, बौरा, देऊपा, खड़ायत, कोली, तेली, नाथ, कापड़ी सभी जातियों के नवयुक इन कज्जाकों से कुछ कम न थे। राम के किनारे फैली गर्म रेत में दौ़ड़ते हुए उनके पैर काठ के हो गए थे और मन मान्तर ह्ंयू में मख्खन था। प्रेम के कई उनमुक्त किस्से-कहानियां थीं वे किसानों के बेटे थे जो सरकार बाहदुर के हुक्म का तामील करते करते हुए अपने खेतों से दूर सीमाओं में लड़ा करते थे। देश की लड़ाई में किसान और सैनिक एक साथ शहीद होते थे। सरकार बाहदुर उनकी लाशों को चमकीले तिरंगे में बाँध के उनकी लाश राम के किनारे लाती । नदी किनारे धूं धूं जलती चिता के सामने बन्दूकें फायर करती और नारे लगते। नौजवान पहाड़ी लड़के मन ही मन इसी तरह शहीद होने की कामना किए करते। राम के किनारे सेना के पूतों के लिए कहवात प्रचलित थी-’ज्यून हाथी लाखक मर्यों हाथी लाखक’ सेना में गया हुआ पूत जिन्दा भी लाख का है और मरा हुआ भी लाख है। यही एक पहाड़ी युवक की अधिकतम किमत थी।
दूर-दूर तक फैला रामगंगा का किनारा, कामगार औरतें, तजुर्बेदार बूढ़े, साहसी जवान, रंगधारी प्राण। आम, सेमल, बेलपत्री, पीपल और बाँस की झाड़ियों से पटा हुआ इलाका था तब पीपलखेल, इन्हीं बाँस की झाड़ियों में सिंटोलों की चीख चिल्लाहट, गूँजती जाती थी, उपजाऊ, तलाऊ ज़मीनें, भांति-भांति के पक्षियों की प्रजातियाँ, जल मुर्गियों, और साथ में स्वादिष्ट मछलियों की भिन्न -भिन्न प्रजातियाँ थी, आंसल, महासीर, वुढ़धुच्चू, गेरड़े, कङरट्टे और बलमा पड़ी जो की शराब, कच्चे प्याज के साथ मोटे नमक का चटखारा भी! 
नामकटा हाफमैण्ड इन्हीं खेतों में पैदा हुआ, इन्हीं में खेला-कूदा। जिस दिन वह पैदा हुआ उसी दिन पूरा गाँव खेतों में गोबर फिजाल (बिखेर) रहा था, नामकटा हाफमैण्ड की ईजा रधुली जिम्दारन ने इसी पोरसे के खात (खेतों में डालने के लिए तैयार किया गया गोबर का चट्टा) पर जन्म दिया था, जिस समय गाँव की दाई कित्थी दी ने उसकी गर्भनाल को दराती से काटा उस समय खून के लिथड़े हाफमैण्ड पर दूर से कौवा आकर झपटने लगा था । दान सिंह को गाँव के लोगों ने टांट में लपेट कर घर पहुँचाया, लेकिन रधुली का खून न रुका वह नामकरण से पहले ही चल बसी।
पिन्टूटा (गाय के दूध के बिना पला बछड़ा) बछड़े सा दान सिंह, अपने पिता नर सिंह के हाथ पड़ा। नर सिंह चिरानिया जो मालदार के ख़ाश लोगों में था, वह मालदार के लिए पेड़ काटा करता फिर पेड़ों का चिरान करता था। जिम्दार होने के बावजूद उसके पास छोटी जोत की ज़मीन थी। जिसे रधुली जिम्दारन संभाल रही थी। लेकिन दुर्भाग्य कि पहले ही जत्काल में जिम्दारन ने टैं बोल दी और छोड़ गई बबाल दान सिंह को नर सिंह के लिए।
नर सिंह ने लाजम अधिया (बटाई) पर दे दिया, खुद चिरान के काम पर लग गया। नर सिंह ने अपने घर के दरवाजों के दोनों और लकड़ी के तख़्ते डाल-डाल कर बाड़ लगा दी, सुबह अपना तो मछानी (बड़ी आरी) कांधे में रखकर चिरान को निकल जाता था और दान सिंह दोनों हाथ, तख्तों में टेककर आने जाने वालों को टुकुर-टुकुर देखता रहता था। घर के सामने से गुजरने वाला अक्सर दो बात करते हुए हाथ हिलाकर ठस्के करके निकल जाता, दान सिंह एक पल हँसता और दूसरे ही पल में रोने लगता, रोते-रोते सो जाता, सोते-सोते हग देता, हगते-हगते उस में पूरा चिपट जाता! मक्खियाँ उसकी आँख, नाक, कान में घुसी रहती थी। सांझ के झुटपुटे में पिता चिरान से लौटता उसे धो नहला कर दूध पिलाता। बचपन से ही उसके सर पर बाल न थे इसीलिए गाँव वाले उसे ताम्खोरी गोपाल कहते थे। ताम्खोरी गोपाल बचपन से ही बहुत मिलनसार आदमी था पर बोलता कम था, गाँव वालों के लिए दौड़कर दुकान जाना, सभी के साथ मेल-मिलाप से रहना, ददा, भुलि, भौजी, आमा, बूबू के रिश्ते की कदर करता था वह। गाँव की महिलाएँ कहती “रधुली जिम्दारन ने दुबारा आदमी के रूप में जन्म ले लिया है।”

पूर्वी रामगंगा की एक सांस्कृतिक झलक

Sunday, August 28, 2016

आँठू,( गौरा)


      आँठू,( गौरा) यह उत्सव उत्तराखण्ड के कुमाऊँ में विशेषकर पिथौरागढ़ जनपद में मनाया जाता है। पिथौरागढ़ जनपद तिब्बत और नेपाल की सीमाओं से घिरा हुआ सीमान्त जनपद है। यही कारण है कि आँठू उत्सव केवल उत्सव न होकर पश्चिमी नेपाल (काली पार) और भारत (काली वार) के सांझा सांस्कृतिक संबन्धों की विरासत भी है, जो भारत और नेपाल के रोटी बेटी के संबन्धों को सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक, संबन्धों को भावनात्मक रूप से मजबूत करता रहा  है। लोक-संस्कृतियों का उद्देश्य केवल आंनद प्रदान करना ही नहीं होता है बल्कि एक दूसरे के सुख-दुःखात्मक अनुभूतियों को साझा करना भी होता है। आँठू मूलतः स्त्रियों का उत्सव है यह नेपाल (कालीपार) और भारत (कालीवार) के सीमान्त जनपदों-पश्चिमी नेपाल के बजाङ, दार्चुला, बैतड़ी और भारत के पिथौरागढ़, चम्पावत व अल्मोड़ा के कुछ हिस्सों में मनाया जाता है। यह उत्सव आपस में इस तरह दोनों देशों से जुड़ा है कि राष्ट्रीय सीमा दोनों देशों के बीच कहीं ही नजर नहीं आती है। लोक संस्कृतियों का कार्य भी यही है कि वह मनुष्य को अपनी उस सीमा से परिचित कराती है जहाँ वह प्रकृति की असीम विराटता के साथ सीधा तादात्म्य स्थापित करता है। आँठू के गीत मध्य हिमालयी महिलाओं का जीवन वृत है और गहन-प्रान्तरों की सुरम्य छटाओं के साथ-साथ लोक जीवन की उत्कट जिजीविषा का मंजुल समन्वय भी इन गीतों में है। लोक संस्कृति केवल मानव समाज के अलगाव को ही खत्म नही  करती है वरन् व्यक्ति और प्रकृति के बीच भी उचित समन्वय स्थापित कर जीवन और जगत को एक सूत्र में बाँधती है।  आँठू, अठ्वालि या अठमी शब्द मूल रूप संस्कृत के अष्टम या अष्टमी शब्द से है। आँठू कुमाऊँ में प्रचलित एक विशेष उत्सव है जिसमें गमरा या गौरा और मैसर के गीत गये जाते हैं। यहाँ आठू का तात्पर्य भादों माह में पड़ने वाले अष्टमी से है। कुमाऊँ भादों की सप्तमी और अष्टमी के दिन स्त्रियाँ शिव और पार्वती की पूजा करती हैं। इसे दूर्वाष्टिमी भी कहा जाता है। सप्तमी के दिन विरुड़ (कंलू) छोटे मटर भिगोये जाते हैं और पनघट पर ले जाकर शुद्धजल से धोये जाते हैं, स्नानोप्रांत दूब व धागे के साथ नये परिधान भी पहने जाते हैं। दूसरे दिन गमरा का आगमन होता है। 

 कुंवारी कन्या सौं (सवा) के पौधों से गमरा बनाती हैं और डलिया में रखकर उसे सिर में रख  के बाजों-गजों (ढोल नागड़ों) के साथ आँगन में  लाती हैं। गमरा  को वस्त्राभूषण से सजाया जाता है। नथ व माला पह़नाई जाती है। रेशमी पिछोड़ा ओढ़ाया जाता है तथा आँगन में उसके जन्म से लेकर ससुराल जाने तक गीत गये जाते हैं। इन्हीं गीतों  केे माध्यम से स्त्रियों के कठोर जीवन, उत्कट जिजीविषा, सामाजिक विडम्बना, परंपरागत रूढियों, मान्यताओं, लोकाचार, आदि से स्त्री-पुरूष संबंधों  अन्तर्विरोधों का पता चलता हैं। महिलाएं  गौरा को विरुड़ चडा़ती हैं, तदुपरांत घर के लिपे पुते स्थान पर उसे स्थापित किया जाता है। पण्डित पाठ करता है। महिलाओं, बच्चों और बुर्जगों सबके हर्षोउल्लास में गमरा का आगमन दर्शन योग्य होता है। उसी दिन सांयकाल स्त्री-पुरुष खेल (पारंपरिक नृत्यगीत  चाँचरी) लगते हैं। दूसरे दिन मैसर आते हैं। चूख (बड़े नीबू) या कहीं कहीं पाँच किस्म के पौधों से मैसर की मानवाकृति बनाई जाती है उसे भी गमरा के पाश्र्व में प्रतिष्ठापित किया जाता है। पाँच-सात दिन तक खूब हर्षोउल्लास व उन्माद  देखने को मिलता है। अतं में ‘तेरी सेवा पूरी भै केदार’ (तेरी सेवा पूरी हुई शिव) कहते हुए गमरा-मैसर को मंदिर में रख दिया जाता है (देव सिंह पोखरिया, कुमाउनी लोक गीतों  की छन्द योजना , पृष्ठ संख्या 235-337) और फलों को फटकाने के उपरांत यह लोकोत्सव, हिलजात्रा (मुखौटा उत्सव) के आयोजन के साथ ही इस उत्सव का समापन हो जाता है।

  यह तो बात हुई इस उत्सव के कर्म काण्ड पक्ष की परन्तु गमरा-मैसर की उद्भावना लोक मानस के उस सरल सहज सौहार्द पूर्ण आहलाद को इंगित करता है। समस्त अभावों को सहते हुए प्रति वर्ष उत्कंठित होकर चिर नवीन रूप धारण करके आता है। आँठू गीत प्रबंध गीत है, तो गौरा-मैसर इन गीतों के पहाड़ी संस्करण है। इस गथा का स्वरुप कुमाऊँ के जनजीवन से संपृक्त है। जो जीवन संघर्षों में जीता हुआ अभावों की विकरालता से कम्पित नहीं हुआ है अपितु उसकी अनूगूंज  सहस्त्रों गुने वेग से हिमालय के उपकण्ठों को आन्दोलित करती है। उन्मुक्त समीकरण उस अनुगूज की मधुरिमा में झूम उठता है। इस गथा में गौरा-मैसर (शिव-पार्वती) सामान्य नारी और पुरुष के रूप में चित्रित हुए हैं। जो कठोर पहाड़ी जीवन व्यतीत करते हैं। इस सम्पूर्ण गथा में दोनों चरित्रों के माध्यम से कुमाऊँ के लोक जीवन की विशद और व्यापक झाँकी प्रस्तुत की ग्ई है। (देव सिंह पोखरिया, कुमाउनी लोक गीतों  छन्द योजना, पृष्ठ संख्या 235-337) एक तरह से आँठू सीमान्त के लोक उत्सवों का प्रस्थान बिन्दु भी है। प्रो0देव सिंह पोखरिया की पुस्तक कुमाऊँनी लोक गीतों की छंद योजना में इस प्रबन्ध गीत कहा गया है।
आँठू में राजा हिमंदुर, रानी मेनावती, मैसर और गौरा का वर्णन आर्दश चरित्रों के रुप में प्रस्तुत किया गया है।
जैसे- 
कहैं उपजै कहैं उपजै हिमंदुर राजा
हिम हिमांचल उपजिग्यान हिमंदुर राजा

अर्थात: कहाँ से उपजें कहाँ से उपजें, हिमंदुर राजा?  इसका उत्तर है कि हिम से ढके हिमालय के अंचल में राजा हिमंदुर उपजे।

कहैं उपिज्या कहैं उपिज्या मैनावति रानी
मैनापहाड़ उपजिग्यान मैनावती रानी

अर्थात कहाँ से उपजी मेनावती रानी, मेना नामक पहाड़ से मेनावती रानी उत्पन्न हुई।(साक्षात्कारः तुलसी देवी ग्रामद्वाारी पोस्ट रीठा रैतोली, बेरीनाग- पिथौरागढ़) विद्वान मानते है कि आँठू संस्कृत के अष्ठमी शब्द उद्भूत है, पर वे यह भूल जाते हैं कि सीमान्त नेपाल औद उत्तराखण्ड के कई जगहों पर आँठू को गौरा या गमरा कहने का ज्यादा प्रचलन है। पिथौरागढ़ के कई हिस्सों में आँठू को गौरा या गमरा नाम से ही जाना जाता है। यहीं नहीं नेपाल के पश्चिम अंचल में भी इस त्यौहार को गौरा के नाम से जाता है। आँठू के प्रबन्ध गीतों में नायिका ही प्रधान हैं। सम्भवतः इसका पूर्व प्रचलित नाम गौरा ही हो। कालान्तर में इसे आँठू कह दिया गया हो । इस गीत के आरम्भ मेें वन्दना विधान भी है।

रूम-रूम जल पड़ि, झुप झुप बनऐन
दियो बैना दियो, जगै दीयो
के अखरि बाति होली, के आखरि दियो होलो
कन देवा दियो, जग्या, झूंलो
सुनु की दियड़ि होली, सर्वरुवा बाति होली
भूमिराज दियो जगै द्यिूलो

अर्थात - 
झामाझम बरखा पड़ रही है घूम घूम कर शाम आ रही है
लाओ बहन दीपक जला दो क्या 
सुखी हुई बाती होगी 
क्या सूखा हुआ दीपक होग
और किस देवता को दीया जलाऊँगी  
सोने का दीपक होग धवल कपास की बाती होगी
भूमि राज को दीया जला जाऊँगी 
(साक्षात्कार: तुलसी देवी ग्रामः द्वाारी पोस्ट0 रीठा रैतोली, बेरीनाग, पिथौरागढ़।)
वन्दना के बाद कथा प्रारम्भ होने से पूर्व चन्द्रमा और सूर्य की उत्पत्ति जल और हरि के पैदा होने का वर्णन है। गौरा के प्रबन्ध गीत में प्रश्नोत्तर-संवाद शैली का प्रयोग किया गया है।
कहैं उपजै कहैं उपजै चनरेसूरज 
अर्थात: कहाँ से उपजे है चन्दमा और सूरज

आँठू में प्रमुख नायक मैसर है जो बहुत बाद में जाकर गौरा के गीतों आता है। यहाँ तक की पूजा विधान में भी गौरा को पहले स्थापित किया जाता है और दूसरे दिन मैसर की मूर्ति को गौरा के पाश्र्व में स्थापित किया जाता है। इन प्रबन्ध गीतों  में सर्वप्रथम गौरा के पिता के उत्पन्न होने की बात कही गयी है। उसके बाद रानी मेनावती और तत्पश्चात् काली गाय उत्पन्न होने की बात है। इसके बाद ब्राह्मणों के उत्पन्न होने की बात सामने आती है। इस प्रबन्ध  में वेदुआ ब्राह्मणों का जन्म काशीपुर बताया गया है।

कहैं कहैं उपज्या वेदुआ बामुन
काशीपुर उपजी ज्ञान वेदुआ बामुनः 
कहैं बामुन रुन्या ठाऊ थ्यो कहैं वेद पड़नथ्या
काशीपुर रुन्या ठाँऊ थ्यो वांई वेद पड़नथ्या

उपरोक्त प्रबन्ध गीत में ठाँऊ, पड़नथ्या रून्या शब्द मूलतः नेपाली गौंउल्या के शब्द है। कहाँ से उपजे यह वेद पाठी ब्राहमण तो उत्तर है काशीपुर से उपजें यह वेदुआ (वेदपाठी) ब्राहमण कौन सी जग्ह यह रहते थे और कहाँ ये वेद पढ़ते थे। तो उत्तर है- काशीपुर। वही उनके रहने की जगह थी और वहीं पर यह वेद पढ़ा करते थे। (साक्षात्कार:  तुलसी देवी ग्रामः द्वाारी पोस्ट- रीठा रैतोली, बेरीनाग- पिथौरागढ़) इसके बाद जाकर कथा या प्रबन्ध काव्य के मुख्य नायक में मैसर का वर्णन प्राप्त होता है।

कहैं कहैं उपज्या मैसर गुस्या

अर्थात:- कहाँ से उपजे मैसर गुंसाई तो इसका उत्तर है दूध के कटोरे और सोने से मैसर उपजे। अब इस प्रबन्ध ग्ीत की नायिका लौली (गौरा या गमरा) का वर्णन मिलता है।

कहैं उपजि कहैं उपजी लौली रे गमरा
बालु बोट गङ ठ्ठ लोली रे उपजि
तिल बोट धाना बोट लोली रे उपजि
पोखर भाड़ी निमुआ भाड़ी लोली रे उपजि

(साक्षात्कार: तुलसी देवी- ग्राम- द्वारी पोस्ट- रीठा रैतोली, बेरीनाग, पिथौरागढ़)


आँठू के इन गीतों के माध्यम से पता चलता है कि यह गैरा-मैसर पूर्ण रुप से मध्य हिमालय के जन-जीवन का अपने द्वारा निर्मित लोकल संस्करण है। इस तरह इन गीतों में गैरा या गमरा को लौली कहकर संम्बोधित किया जाता है। गौरा बचपन में ही सन्यास लेने की जिद कर बैठती है और नदी के किनारे अपनी झोपड़ी बनाकर रहने लगती है। नदी के पार मैसर अपनी भैस चराने आता है दोनों एक दूसरे को देखते है और प्रेम होने लगता है  मैसर लौली का परिचय पूछते हैं , लौली टाल देती है इस तरह मैसर बहुत जिद करते हुए लौली से प्रणय निवेदन करते हैं और हाथ माँगने के लिए लौली के घर का पता पूछते हैं तो लौली अपने पिता के वैभव पूर्ण स्थिति का ब्यौरा देती हुई कहती है, "राजा हिमंदुर मेरे पिता हैं जिला  सह रौतेला मेरे मामा है अनरा और चनरा मेरी मामियाँ हैं तुम जब जाओगे तो देखना आँगन में झपुआ कुत्ता होगा अस्तबल पर घोड़ी होगी, हल जोतने का बाट होगा, चैहारी सभा के बीच मेरे पिता बैठे होगें।" इस तरह से मैसर जोगी  का भेष रखकर लौली के पिता से लौली (गमरा) का हाथ माँगने जाते है ।  आश्चर्य चकित करने वाली बात है कि इस प्रेम कथा  में मैसर मुरली और गौरा विणाई (मोछंग) बजाते हुए दिखाये गये हैं। इस तरह इनका विवाह हो जाता है। विवाहोपरांत की कथा करूण रस में तब्दील हो जाती है जिसमें कई चमत्कार पूर्ण वर्णन व स्त्री  के दुखःदर्द के  वर्णन मिलते है।
मैक्सिम गोर्की ने उचित ही कहा है, "लोकगीत  श्रम में लगी  जनता के वास्तविक इतिहास और स्थिति की जानकारी देने के प्रबल स्रोत हैं। लोक साहित्य, पुराकथाओं, दन्तकथाओं की रचना कल्पना के सहारे होती है। पर यह कल्पना यथार्थ में निहित किसी मूलभूत भाव, विचार या सत्य को लेकर चलती।" 
इस सम्पूर्ण काव्य को देखें तो यह  मौलिक नजर आता हैं, हो सकता है कि शिव और पार्वती केवल प्रतीक के रुप में यहाँ स्थापित किय गये हों। आठूँ के गीतों  में स्त्री सरोकारों और स्त्री चुनौतियों का भी तत्कालीन परिस्थियों के अनुसार वर्णन किया गया है। कुल मिलाकर आठूँ के गीतों  पर गहन अध्ययन और उचित दृष्टिकोण की जरूरत  फिलहाल बनी हुई है। इसमें संदेह नहीं कि आठूँ के गीत हमें मध्य हिमालय के आदिम जन जीवन  को समझने के लिये नये आयाम दे सकते । 

                                                                                                                          -अनिल  कार्की