दस किश्तें यहाँ डालूँगा उम्मीद है पसंद आएगा पहाड़ों में राष्ट्रीय आन्दोलन और उसके बाद की हलचल व राजनैतिक पृष्ठभूमि पर लिखने का प्रयास है यह पहला ड्राफ्ट है हर शनिवार नई किश्त ।
एक -1
वो बिष्टों की लड़की थी। जात-खान देख कर नेपाल से बियाह कर लाए उसे थोकदार मंगल सिंह। दहेज में चार भैंस पचास बकरियां, दो सेवादार मिले। जिसमें से एक का नाम भागुली और दूसरे का नाम था मधवा। उस समय इन सेवादारों के नाम के पीछे जात में कम्रा (कामदार) लिखा जाता था। कालान्तर में मधवा अपने नाम के पीछे बोरा और फिर आंखिरकार बिष्ट ही लिखने लगा। सवाल केवल जात बदलने का नहीं था और न ही नाम बदलने का, सवाल था इंसान के बदल जाने का।
वर्षों पहले थोकदार और उसकी पत्नी जब अपनी बेटी का ब्याह करके गाँव में आनंद से रह रहे थे उन्हीं दिनों थोकदार मंगल सिंह पहाड़ से गिरकर मर गया। इसी तरह एक दिन सुबह बिना-बीमार के खड़ाखड़ी थोकदारनी भी गुज़र गई। थोकदार की लड़की वसुन्धरा का पति सेना में शहीद हो गया। वसुन्धरा भी अपना पैंल (ससुराल) छोड़कर मैत (माईके) आकर बैठ गई। कहते हैं मधवा ने उसे दूसरे घर नहीं जाने दिया। सेना से मिले रुपयों-पैसे थोकदार की संपत्ति सब मधवा ने हड़प ली।
इसी तरह से वसुन्धरा के मरने के बाद माधव सिंह उर्फ मधवा कम्रा अपने नाम के आगे बिष्ट लगाने लगा। उसने खूब संपत्ति से शहर में एक होटल बनाया जिसका नाम रखा ‘होटल भूपति’। वह धीरे-धीरे सत्ता और पूँजी के फेर में रमता गया और इस तरह वह एक दबंग और खतरनाक माफिया बन गया। लोगों को दुःख बीमार के समय उन्हे धन उधार देता और बदले में गहने गिरवी रख लेता, जमीनें गिरवी कर लेता। धीरे-धीरे शराब में ठेकेदारी करते हुए उसने अपना एकछत्र राज खड़ा कर दिया।
लेकिन तब बगड़खोला की जमीन में आद् (नमी) थी। मंडुवे की बालें सूर्जमुखी के फूल सी भरी रहती थी, अलसी-पीतल के परादों में पिसलती थी। धानों की प्रजातियाँ केदार गाँव के सेरे को नई -नवेली नखरियाली बहु सा सजाती थी। उन दिनों पूर्वी रामगंगा का भी पानी छिछला न था, पानी की लहरें दोनों किनारों को छूती थी। एक ही खेत को दोहल बल्द जोतते थे। ढेड़ बेत का चौड़ा नस्यूड़ धरती को सहलाता हुआ गांभिन करता था। मूगफली, कोणी, मादिरा, आम, अमरूद, कटहल, अननानास खूब जमकर होते थे वहाँ। तब ‘भूपति’ होटल का मालिक शहर में ही था।
उन दिनों गाँव में केदार देवता पूजा जाता था, वही केदार देवता जो मूलतः बिष्टों का ईष्ट देव भी था। फागलों और भीड़ो में बाभ्यो घास खूब गाझिन उगती थी। गाँव के लोग अपने लोकदेवता का दायभाग नैनाकी के रूप में संज्यात (सामुहिक रूप) चढ़ाते थे तब जाकर पकता था घरों पर नया नाज।
जिन दिनों उत्तरप्रदेश से अलग राज्य उत्तराखंड बनने की सुगबुगाहट शुरू हुई तभी से मधवा का गाँव में दखल बढ़ता गया। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद यह दख़ल दोगुना हो गया और इस दखल का पहला विरोध किया ताम्खोरी गोपाल उर्फ हॉफमैण्ड ने।
ताम्खोरी गोपाल का असली नाम दान सिंह था। रामगंगा के किनारे स्तेपी के मैदान से नाज के सेरे फैले थे। रूस की दोन नदी के किनारे रहने वाले कज्ज़ाक लड़ाकों और राम नदी के आर-पार बिखरे भण्डारी, टम्टा, ल्वार, सार्की, बौरा, देऊपा, खड़ायत, कोली, तेली, नाथ, कापड़ी सभी जातियों के नवयुक इन कज्जाकों से कुछ कम न थे। राम के किनारे फैली गर्म रेत में दौ़ड़ते हुए उनके पैर काठ के हो गए थे और मन मान्तर ह्ंयू में मख्खन था। प्रेम के कई उनमुक्त किस्से-कहानियां थीं वे किसानों के बेटे थे जो सरकार बाहदुर के हुक्म का तामील करते करते हुए अपने खेतों से दूर सीमाओं में लड़ा करते थे। देश की लड़ाई में किसान और सैनिक एक साथ शहीद होते थे। सरकार बाहदुर उनकी लाशों को चमकीले तिरंगे में बाँध के उनकी लाश राम के किनारे लाती । नदी किनारे धूं धूं जलती चिता के सामने बन्दूकें फायर करती और नारे लगते। नौजवान पहाड़ी लड़के मन ही मन इसी तरह शहीद होने की कामना किए करते। राम के किनारे सेना के पूतों के लिए कहवात प्रचलित थी-’ज्यून हाथी लाखक मर्यों हाथी लाखक’ सेना में गया हुआ पूत जिन्दा भी लाख का है और मरा हुआ भी लाख है। यही एक पहाड़ी युवक की अधिकतम किमत थी।
दूर-दूर तक फैला रामगंगा का किनारा, कामगार औरतें, तजुर्बेदार बूढ़े, साहसी जवान, रंगधारी प्राण। आम, सेमल, बेलपत्री, पीपल और बाँस की झाड़ियों से पटा हुआ इलाका था तब पीपलखेल, इन्हीं बाँस की झाड़ियों में सिंटोलों की चीख चिल्लाहट, गूँजती जाती थी, उपजाऊ, तलाऊ ज़मीनें, भांति-भांति के पक्षियों की प्रजातियाँ, जल मुर्गियों, और साथ में स्वादिष्ट मछलियों की भिन्न -भिन्न प्रजातियाँ थी, आंसल, महासीर, वुढ़धुच्चू, गेरड़े, कङरट्टे और बलमा पड़ी जो की शराब, कच्चे प्याज के साथ मोटे नमक का चटखारा भी!
नामकटा हाफमैण्ड इन्हीं खेतों में पैदा हुआ, इन्हीं में खेला-कूदा। जिस दिन वह पैदा हुआ उसी दिन पूरा गाँव खेतों में गोबर फिजाल (बिखेर) रहा था, नामकटा हाफमैण्ड की ईजा रधुली जिम्दारन ने इसी पोरसे के खात (खेतों में डालने के लिए तैयार किया गया गोबर का चट्टा) पर जन्म दिया था, जिस समय गाँव की दाई कित्थी दी ने उसकी गर्भनाल को दराती से काटा उस समय खून के लिथड़े हाफमैण्ड पर दूर से कौवा आकर झपटने लगा था । दान सिंह को गाँव के लोगों ने टांट में लपेट कर घर पहुँचाया, लेकिन रधुली का खून न रुका वह नामकरण से पहले ही चल बसी।
पिन्टूटा (गाय के दूध के बिना पला बछड़ा) बछड़े सा दान सिंह, अपने पिता नर सिंह के हाथ पड़ा। नर सिंह चिरानिया जो मालदार के ख़ाश लोगों में था, वह मालदार के लिए पेड़ काटा करता फिर पेड़ों का चिरान करता था। जिम्दार होने के बावजूद उसके पास छोटी जोत की ज़मीन थी। जिसे रधुली जिम्दारन संभाल रही थी। लेकिन दुर्भाग्य कि पहले ही जत्काल में जिम्दारन ने टैं बोल दी और छोड़ गई बबाल दान सिंह को नर सिंह के लिए।
नर सिंह ने लाजम अधिया (बटाई) पर दे दिया, खुद चिरान के काम पर लग गया। नर सिंह ने अपने घर के दरवाजों के दोनों और लकड़ी के तख़्ते डाल-डाल कर बाड़ लगा दी, सुबह अपना तो मछानी (बड़ी आरी) कांधे में रखकर चिरान को निकल जाता था और दान सिंह दोनों हाथ, तख्तों में टेककर आने जाने वालों को टुकुर-टुकुर देखता रहता था। घर के सामने से गुजरने वाला अक्सर दो बात करते हुए हाथ हिलाकर ठस्के करके निकल जाता, दान सिंह एक पल हँसता और दूसरे ही पल में रोने लगता, रोते-रोते सो जाता, सोते-सोते हग देता, हगते-हगते उस में पूरा चिपट जाता! मक्खियाँ उसकी आँख, नाक, कान में घुसी रहती थी। सांझ के झुटपुटे में पिता चिरान से लौटता उसे धो नहला कर दूध पिलाता। बचपन से ही उसके सर पर बाल न थे इसीलिए गाँव वाले उसे ताम्खोरी गोपाल कहते थे। ताम्खोरी गोपाल बचपन से ही बहुत मिलनसार आदमी था पर बोलता कम था, गाँव वालों के लिए दौड़कर दुकान जाना, सभी के साथ मेल-मिलाप से रहना, ददा, भुलि, भौजी, आमा, बूबू के रिश्ते की कदर करता था वह। गाँव की महिलाएँ कहती “रधुली जिम्दारन ने दुबारा आदमी के रूप में जन्म ले लिया है।”